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चिंतन करने का सही तरीका

चिंतन करने का सही तरीका

“अपने सोचने का ढंग ठीक करें, स्वयं सुख से जीवन जीएं, और दूसरों को भी सुख से जीने देवें। यही जीवन जीने का सही तरीका है।


कोई भी व्यक्ति सारा दिन मन से चुपचाप नहीं रह सकता। वह दिन भर कुछ न कुछ तो सोचता ही है। “कभी सकारात्मक सोचता है, कभी नकारात्मक सोचता है। कभी अच्छा सोचता है, तो कभी बुरा सोचता है। कभी आशावादी हो जाता है, और कभी निराशावादी भी हो जाता है।” न तो व्यक्ति को प्रत्येक काम में 100 प्रतिशत आशावादी होना चाहिए, और न ही 100 प्रतिशत निराशावादी।
ऋषियों ने अपने शास्त्रों में बताया है, कि सोचने का सही ढंग क्या है? वे कहते हैं कि, पहली बात – “जिन कार्यों को आप स्वयं कर सकते हैं, उन्हें आप स्वयं करें। उन कार्यों के विषय में पूर्ण (100%) आशावादी रहें, कि “मैं इस काम को स्वयं कर लूंगा और यह कार्य पूरा हो जाएगा.” जैसे नहाना धोना, अपने कपड़े जूते चप्पल सुरक्षित रखना, अपना फोन डायरी आदि सामान सुरक्षित रखना, समय पर इन वस्तुओं से काम लेना इत्यादि। आपकी ऐसी इच्छाएं पूरी हो जाएंगी।


दूसरी बात “जिन कार्यों को करना आपके सामर्थ्य से बिल्कुल बाहर है। उस प्रकार की अपनी इच्छाएं और आशाएं छोड़ देनी चाहिएं।”


जैसे आप यह सोचें, कि “मैं इस प्रांत का मुख्यमंत्री बन जाऊंगा। या देश का प्रधानमंत्री बन जाऊंगा। या करोड़पति अरबपति सेठ बन जाऊंगा इत्यादि।” यदि ये कार्य आपके सामर्थ्य से बाहर हैं, तो ऐसी इच्छाएं और आशाएं छोड़ करनी चाहिएं।


तीसरी बात “कुछ कार्य ऐसे होते हैं, जो दूसरों के सहयोग से पूरे हो सकते हैं। यदि ठीक समय पर उनका सहयोग मिल गया, तो आपकी इच्छा पूरी हो जाएगी। और यदि ठीक समय पर दूसरों का सहयोग नहीं मिला, तो आपकी वह इच्छा या आशा पूरी नहीं हो पाएगी।” जैसे आपको अपने व्यापार के लिए कुछ पैसा चाहिए। यदि आपके मित्रों ने सही समय पर आपको सहयोग कर दिया, तो आपकी इच्छा पूरी हो सकती है। यदि उनका सहयोग नहीं मिला, तो पूरी नहीं हो सकती।


इस तीसरे क्षेत्र में बहुत सावधानी से सोचना चाहिए। “दूसरे लोगों से न तो 100 प्रतिशत आशा रखनी चाहिए, और न ही 100 प्रतिशत निराशा।” पिछले व्यवहार के आधार पर दूसरे लोगों से उस उस कार्य सिद्धि की आशा रखनी चाहिए। उदाहरण के लिए — जिस व्यक्ति ने भूतकाल में 80% आपकी कार्य सिद्धि की हो, भविष्य में भी उससे उतनी ही आशा रखें। जिसने 60% आपका काम किया हो, तो भविष्य में भी उससे 60% ही आशा रखें। जिसने 100 प्रतिशत आपका काम किया हो, उससे भी भविष्य में 100 प्रतिशत आशा न रखें। क्योंकि “हो सकता है, भविष्य में उसके पास वह सामर्थ्य न रहे। और चाहते हुए भी वह आपका काम पूरा न कर पाए।” “ऐसी स्थिति में यदि आप 100 प्रतिशत आशा लेकर किसी दूसरे व्यक्ति के पास जाएंगे, और किसी कारणवश वह उस कार्य को संपन्न नहीं करवा पाया, तब आप को बहुत बड़ा झटका लगेगा।” बहुत दुख होगा। आप परेशान हो जाएंगे। उस परेशानी से बचने के लिए लोगों से पिछले व्यवहार के आधार पर उतनी ही आशा रखनी चाहिए।


“अपने मन में दोनों विचार रखने चाहिएं, कि हो सकता है वह मेरा काम कर दे। और यह भी हो सकता है, कि वह मेरा काम न भी कर पाए।” ऐसी स्थिति में यदि उसने आपका काम कर दिया। तब तो ठीक है। और यदि वह नहीं कर पाया, तब आप अपने मन को जैसे तैसे समझा बुझा लें, कि “कोई बात नहीं। उसके सामर्थ्य की भी सीमा है।” कोई भी व्यक्ति सर्वशक्तिमान् नहीं है। किसी की भी कोई 100 प्रतिशत गारंटी नहीं है, कि वह हमेशा हमारा काम कर ही देगा। “इसलिए प्रत्येक कार्य में प्रत्येक व्यक्ति से 100 प्रतिशत आशा न रखें। परंतु हर कार्य में 100 प्रतिशत निराशावादी भी न बनें।”


“कुछ लोग हर काम में 100 या 80 प्रतिशत निराशावादी बन जाते हैं। यह सोचने का तरीका गलत है। ऐसा सोचने से जीवन में कोई उत्साह ही नहीं रहता। तब व्यक्ति पुरुषार्थ भी ठीक से नहीं करता। और सब जगह असफल होता जाता है। परिणाम कुछ ही समय में वह डिप्रेशन में चला जाता है। और अनेक बार तो घबरा कर व्यक्ति आत्महत्या तक भी कर लेता है। ऐसा कभी नहीं करना चाहिए।”


इसलिए ठीक ढंग से सोचें, अपना चिंतन अधिकतर सकारात्मक आशाओं से युक्त रखें। “जहां आप का कार्य सिद्ध न होने की संभावना लगती हो, वहां वहां कुछ कुछ नकारात्मक भी सोचें। अपनी इच्छाओं और आशाओं को नियंत्रित रखें। अपने कार्य को ठीक प्रकार से संपन्न करें, और अपने जीवन को सफल बनाएं।”
– स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक

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