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हृदय पर शासन करना अधिक उत्तम है

हृदय पर शासन करना अधिक उत्तम है

“दूसरों पर शासन करने की भूख तो प्रायः सभी को होती है। परंतु सब लोग दूसरों पर शासन करना नहीं जानते।”

दूसरों पर शासन दो प्रकार से किया जाता है। एक – उनके शरीर पर, और दूसरा – उनके मन या हृदय पर। “शरीर पर शासन करना सरल है। परंतु किसी के मन या हृदय पर शासन करना बहुत कठिन है।” दोनों की विधि अलग-अलग है।

“शरीर पर शासन करने के लिए आपको कोई ऊंचा अधिकार चाहिए। पद चाहिए। सत्ता चाहिए। संपत्ति चाहिए। कुछ शारीरिक बल चाहिए। प्रसिद्धि चाहिए, इत्यादि। इन कारणों से आप दूसरों पर दबाव डालकर उनके शरीर पर शासन कर सकते हैं।” अर्थात दूसरे लोगों को अपनी इन शक्तियों से डांट फांट करके, धमका कर, अथवा आदेश देकर उनसे अपना इच्छित कार्य करा सकते हैं। “आपकी शक्तियों से डरकर दूसरे लोग आपके आदेश का पालन कर देंगे। परन्तु उनके मन में आपके प्रति श्रद्धा समर्पण त्याग आदि की भावना कुछ विशेष नहीं होगी। इसका अर्थ हुआ, कि आप उनके शरीर पर शासन करते हैं।”

परंतु दूसरों के हृदय पर शासन करना, इस से बिल्कुल अलग है। “उसके लिए इन बाह्य शक्तियों की आवश्यकता कम होती है, बल्कि आध्यात्मिक गुणों की आवश्यकता अधिक होती है।” “जिनके पास सेवा सभ्यता नम्रता दान दया हृदय में शुद्ध भावना मीठी भाषा न्याय का आचरण निष्कामता दयालुता सहृदयता सरलता परोपकारवृत्ति बुद्धिमत्ता सच्चाई ईमानदारी उत्तम चरित्र तपस्या संतोष इत्यादि आध्यात्मिक गुण होते हैं, वे लोग दूसरों के हृदय पर शासन कर सकते हैं। दूसरों के मन पर शासन कर सकते हैं।”

शरीर पर शासन, और हृदय पर शासन, जब इन दोनों की तुलना की जाती है, तो “शारीरिक शासन की अपेक्षा, हृदय पर किया गया शासन अधिक उत्तम होता है। बल्कि कहना चाहिए, कि असली शासन तो वही होता है, जो किसी के हृदय पर किया जाए।” ऐसा शासन लंबे समय तक चलता है। शासक व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी उसका शासन चलता है। “जैसे श्री राम जी श्री कृष्ण जी, महर्षि पतंजलि गौतम कणाद जैमिनी महर्षि दयानंद आदि महापुरुषों का शासन आज तक हम सबके हृदय पर चलता है। क्योंकि उन महापुरुषों के जीवन में ऊपर बताए गए उत्तम आध्यात्मिक गुण थे, जिनके कारण वे आज भी हमारे हृदय पर शासन करते हैं, और आगे भी हजारों वर्षों तक करेंगे।”

“आप भी यदि जीते जी दूसरों के मन या हृदय पर शासन करना चाहते हों, असली शासन करना चाहते हों, उसका आनंद लेना चाहते हों, तो अपनी नीयत (भावना) शुद्ध रखें, वाणी में मिठास रखें, और आचरण में न्याय रखें। अर्थात उत्तम आध्यात्मिक गुणों को धारण करें।”

—- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक

महर्षि दयानंद योग फाउंडेशन

तस्य वाचकः प्रणवः

  • तस्य – उस (ईश्वर का)
  • वाचक – वाचक (नाम)
  • प्रणव: – प्रणव अर्थात् ॐ कार है ।

उस ईश्वर का वाचक (नाम) प्रणव अर्थात् ॐ कार है ।

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