
Maharshi Dayanand Sarswati

1 | जन्म नाम | मूलशंकर तिवारी |
2 | जन्म | 12 फरवरी 1824 |
3 | माता पिता | अमृत बाई – करशनजी लालजी तिवारी |
4 | शिक्षा | वैदिक ज्ञान |
5 | गुरु | विरजानन्द |
6 | कार्य | समाज सुधारक, आर्य समाज के संस्थापक |
स्वामी दयानन्द सरस्वती अपने महान व्यक्तित्व एवं विलक्षण प्रतिभा के कारण जलमानस के हृदय में विराजमान हैं।
स्वामी दयानंद सरस्वती दन महान संतों में अग्रणी हैं जिन्होंने देश में प्रचलित अंधविश्वास, रूढिवादिता, विभिन्न प्रकार के आडंबरों व सभी अमानवीय आचरणों का विरोध किया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता देने तथा हिन्दू धर्म के उत्थान व इसके स्वाभिमान को जगाने हेतु स्वामी जी के महत्वपूर्ण योगदान के लिए भारतीय जनमानस सदैव उनका ऋणी रहेगा।
स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म सन् 1824 ई. को गुजरात प्रदेश के मौरवी क्षेत्र में टंकरा नामक स्थान पर हुआ था। स्वामी जी का बचपन का नाम मूल शंकर था। आपके पिता जी सनातन धर्म के अनुयायी व प्रतिपालक माने जाते थे। स्वामी जी ने अपनी प्रांरभिक शिक्षा संस्कृत भाषा में गृहण की । धीरे-धीरे उन्हें संस्कृत विषय पर पूर्ण अधिकार प्राप्त हो गया। बाल्यकाल से ही उनके कार्यकलापों में उनके दिव्य एवं अद्भुत रूप की झलक देखने को मिलती थी।
स्वामी जी को बाल्यकाल से ही ऐसा वातावरण प्राप्त हुआ जिसमें सम्पूर्ण देश पराधीनता की बेडियों में जकडता जा रहा था । तत्कालीन भारत विदेशी शासन के अधीन था। अपने देशवासियों के प्रति अमानवीय व्यवहार ने उनके मनोमस्तिष्क को आंदोलित करना प्रारम्भ कर दिया। विदेशी दासत्व के अतिरिक्त समाज में व्याप्त अनेक प्रकार की कुरीतियों एवं अंधविश्वास आदि के वातावरण ने उनके अंतर्मन को झकझोर दिया।
स्वामी जी ने 21 वर्ष की आयु में ही अपने घर-परिवार का परित्याग कर वैराग्य धारण कर लिया। योग-साधना तथा कठोर तप से पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति के लिए वे अपने साधना पथ पर अनेक प्रकार के योगियों, साधु-संतों व महात्माओं से मिले परन्तु इनकी जिज्ञासा समाप्त नहीं हुई।
वे हरिद्वार, केदारनाथ, बद्रीनाथ आदि तीर्थ-स्थलों एवं आध्यात्मिक क्षेत्रों का परिभ्रमण करते रहे। भ्रमण के दौरान ही मथुरा में उनकी महान योगी एवं सन्त विरजानंद जी से मुलाकात हुई। वे उनकी विद्वता से अत्यंत प्रभावित हुए तथा उन्हें अपना गुरू मान लिया।
लगभग 35 वर्षों तक स्वामी विरजानंद जी के निर्देशन में उन्होंने समस्त वेदों व उपनिषदों का अध्ययन किया। अपनी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण होने के उपरांत वे गुरू के आदेशानुसार देश में फैली अज्ञानता को दूर करने के उद्येश्य से परिभ्रमण करने लगें अपने देश-भ्रमण के दौरान ही उन्होंने ‘आर्य-समाज’ की स्थापना की।
समाज से अज्ञानता, रूढिवादिता व अंधविश्वास को मिटाने हेतु उन्होंने धर्मग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना की । ‘वेदांग प्रकाश’, ‘ऋग्वेद भूमिका’ तथा -व्यवहार भानु’ स्वामी जी के अन्य श्रेष्ठ ग्रंथ हैं। उनके ग्रंथों के अध्ययन से यह पता चलता है कि उन्हें प्राचीन भारत की संस्कृति से अटूट लगाव था।
स्वामी जी ने मन, वचन व कर्म तीनों शक्तियों से समाजोद्धार के लिए प्रयत्न किया। अपनी रचनाओं व उपदेशों के माध्यम से भारतीय जनमानस को मानसिक दासत्व से मुक्त कराने की पूर्ण चेष्टा की । उनकी वाणी इतनी अधिक प्रभावी व ओजमयी थी कि श्रोता के अंतर्मन को सीधे प्रभावित करती थी। उनमें देश-प्रेम व राष्ट्रीय भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी।
समाजोत्थान की दिशा में उनके द्वारा किए गए प्रयास अविस्मरणीय हैं। समाज में व्याप्त बाल-विवाह जैसी कुरीतियों का उन्होंने खुले शब्दों में विरोध किया। उनके अनुसार बाल-विवाह शक्तिहीनता के मूल कारणों में से एक है। इसके अतिरिक्त वे विधवा-विवाह के भी समर्थक थे।
स्वामी दयानंद सरस्ती जी को अपनी मातृभाषा हिंदी से विशेष लगाव था। उन्होंने उस समय हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दिलाने हेतु पूर्ण चेष्टा की । उनके प्रयासों से हिंदी के अतिरिक्त वैदिक धर्म व संस्कृत भाषा को भी समाज में विशेष स्थान प्राप्त हुआ।
दयानंद विद्यालय व विश्वविद्यालयों ने वैदिक धर्म व हिंदी भाषा के प्रचार – प्रसार में विशेष योगदान दिया। वे ‘आर्य समाज’ के संस्थापक थे जिसकी हजारों की संख्या में शाखाएँ देश-विदेशों में आज भी फैली हुई हैं तथा भारतीय संस्कृति व सभ्यता के विकास में महात्वपूर्ण योगदान दे रही हैं।
स्वामी दयानंद सरस्वती एक युग पुरूष थे। उनका संपूर्ण जीवन तप और साधना पर आधारित था। उन्होंने वैदिक धर्म व संस्कृति के उत्थान के लिए जीवन पर्यंत प्रयास किया। विदेशी दासत्व से भारतीय जनमानस को मुक्त कराने हेतु उनका प्रयास सदैव स्मरणीय रहेगा। हिंदी भाषा को मान्यता व सम्मान प्रदान करने हेतु उनके प्रयासों को राष्ट्र कभी भी भुला नहीं पाएगा।
62 वर्ष की आयु में स्वामी जी दिवंगत हो गए। उन्हें धोखे से विष पिला दिया गया था, मगर इस महान आत्मा ने विषपान कराने वाले व्यक्ति को हृदय से माफ कर दिया। उनके द्वारा रचित महान् ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ आज भी संपूर्ण आर्य जनमानस का मार्ग प्रशस्त कर रहा है।